तलाई वाले बालाजी : मौन की वह शरण, जहाँ मन स्वयं को सुनता है !
कुछ स्थान मंदिर नहीं होते — वे आत्मा के रुद्ध स्वर होते हैं, जिन्हें केवल अंतरात्मा की मौन आकुलता ही सुन सकती है। कोलाहल से कुछ दूर, समय के पाँव थामे, एक ऐसा ही स्थान है – तलाई वाले बालाजी का मंदिर।
यहाँ ईश्वर का आह्वान मंत्रों से नहीं होता,
यहाँ देवता को भावनाओं की नमी में पाया जाता है।
यहाँ कोई कुछ कहता नहीं – और फिर भी, सब कुछ कह जाता है।
पहली बार जब कोई इन सीढ़ियों पर चढ़ता है, वह केवल शरीर से नहीं चढ़ता –
वह चढ़ता है अपने टूटे यकीनों के बोझ से,
अपने भीतर की जंग खाई हुई दीवारों से,
और उन प्रश्नों से जिन्हें वह किसी इंसान से कह नहीं पाया।
और जब वह ऊपर पहुँचता है, तो सामने कोई आलंकारिक देवता नहीं होता –
बल्कि होता है एक अविचलित मौन,
एक ऐसी उपस्थिति, जिसे न देखा जा सकता है न छुआ –
केवल महसूस किया जा सकता है।
तलाई वाले बालाजी की प्रतिमा को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वे केवल एक देवता नहीं,
बल्कि एक सुनहरी थकान हैं –
जो सब कुछ जानती है, लेकिन कुछ नहीं कहती।
जैसे किसी माँ की आँखों में छिपी हुई वह स्वीकृति,
जो हर संताप को सहने की ताक़त दे देती है।
यहाँ कोई चमत्कार नहीं घटता –
फिर भी, कुछ तो अवश्य बदलता है।
कंधे हल्के हो जाते हैं, आँखे नम हो जाती हैं,
और मन… वह जैसे अपनी खोई हुई भाषा पा लेता है।
कभी-कभी श्रद्धा केवल पूजा नहीं होती,
वह एक स्वीकार होती है –
कि हम अधूरे हैं, थके हुए हैं, और ईश्वर से कुछ नहीं,
सिर्फ आलिंगन माँगते हैं।
इस मंदिर में हर मंगलवार को आने वाली बूढ़ी औरत के चेहरे पर मैंने वह शांति देखी है,
जो जीवन भर की व्यथा के बाद ही मिलती है।
एक लड़का, जो हर बार अपने जीवन की परीक्षा में असफल होता है –
यहाँ आकर केवल सफल होने की दुआ नहीं माँगता,
बल्कि यह माँगता है कि वह हार को भी सम्मान से झेल सके।
यह मंदिर केवल ईश्वर की शरण नहीं,
यह उन सबका निवास है जो थक चुके हैं, टूट चुके हैं,
और अब केवल एक मौन आलिंगन चाहते हैं।
तलाई वाले बालाजी –
वो देवता हैं जो कुछ नहीं कहते,
पर हर किसी की अनकही भाषा जानते हैं।
यहाँ आकर जीवन बदलता नहीं,
पर जीवन को देखने की दृष्टि बदल जाती है।
यहाँ आकर लोग बदलते नहीं –
वे स्वयं से मिलते हैं।
– अशांशु संचेती (लेखक)