आदत भी मिलावट भी


प्रेम प्रकाश

तीसरी दुनिया के देशों को लंबे समय तक यह ताना सहना पड़ा कि उनके यहां तालीम से लेकर सेहत तक जागरूकता का बड़ा अभाव है। इसी कारण गरीबी और बीमारी जैसी समस्याओं से वे ज्यादा जूझते हैं। इस तर्क या आरोप का प्रतिकार तो क्या होता, विकास की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए लालायित देशों ने इसे अपने चरित्र के प्रमाणपत्र के तौर पर स्वीकार कर लिया। यह स्थिति तब थोड़ी बदली जब उदारवाद और फिर नवउदारवाद का दौर चला। बाजार की खुली छतरी के नीचे आने का आकर्षण विकास में पिछड़े देशों के लिए यह था कि उन्हें रातोंरात विकास और संपन्नता के बड़े सपने दिखाए गए। पर अवसर और स्पर्धा के न्यायपूर्ण सिद्धांत के नाम पर शुरू हुई इस होड़ में विकास की चौंध से दूर खड़े देश एक बड़े बाजार में तब्दील हो गए। फिर क्या था, ज्यादा खपत और अकूत मुनाफे के नाम पर तरह-तरह के झांसे परोसे जाने लगे। इसमें एक बड़ा झांसा सेहत को लेकर जागरूकता से जुड़ा रहा। स्थानीय उत्पादों और उनसे जुड़े भरोसों को खारिज कर आए बड़े नामों और ब्रांडों ने अपने मुताबिक बाजार को खड़ा किया। आज जब खासतौर पर खाद्य उत्पादों से जुड़े दावों की पड़ताल हो रही है तो पता चल रहा है कि उपभोक्ताओं की सेहत के साथ सीधे-सीधे खिलवाड़ किया जा रहा है।

दावों की थाली

सबसे शुद्ध पानी, देश का नमक, पौष्टिकता से भरपूर और स्फूर्ति का टॉनिक जैसे विज्ञापनी दावों की पैठ आज इंटरनेट, टीवी और मोबाइल फोन के जरिए चौबीसों घंटे सीधे हमारे दिलो-दिमाग तक है। ऐसे में इनसे बचने का कोई रास्ता नहीं है। इसका नतीजा यह कि हम वही मान रहे हैं जो हमें दिनरात बताया जा रहा है, हम वही खा रहे हैं जो हमें हमेशा दिखाया जा रहा है। हमारी जरूरत, हमारी चाहत, हमारी आदत आज सब कुछ वैसी ही है जैसा बाजार चाहता है। पर यह हमारी सेहत के लिए सही नहीं है।

आटा नूडल्स को चटपटे के तौर पर प्रचारित करने वाले एक उत्पाद का पंचलाइन है ‘झटपट बनाओ, बेफिक्र खाओ।’ इसके एक पैकेट नूडल्स में 2.4 ग्राम नमक है। याद रखें कि एक स्वस्थ व्यक्तिको पांच ग्राम नमक का उपभोग ही पूरे दिन के लिए अनुशंसित है। सीएसई की एक रिपोर्ट के मुताबिक चिंग्स सीक्रेट स्केजवान तो एक कदम और आगे है। इसके लेबल में इस्तेमाल की गई सामग्री को आधे से भी कम लिखा गया है। इसी तरह से, झटपट तैयार होने वाले सूप काफी पसंद किए जाते हैं, लेकिन यह भी कोई स्वस्थ विकल्प नहीं है। नॉर क्लासिक थिक टोमैटो सूप यदि एक बार परोसते हैं तो आप दिन में इस्तेमाल करने लायक नमक की मात्रा का एक चौथाई खा लेते हैं। जाहिर है कि आहार का असंतुलन आगे भी बना रहेगा।

झांसा दर झांसा

ब्रिटानिया न्यूट्री च्वाइस कुकीज का दावा है कि ये कुकीज ‘डायबटीज फ्रेंडली’ है। जबकि सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक इसमें 19 फीसदी फैट पाया गया है। वहीं बॉर्नवीटा ‘तन की शक्ति, मन की शक्ति’ बढ़ाने का दावा करता है जबकि सच्चाई यह है कि इसमें भी 71 फीसद शुगर है जो सामान्य से 57 फीसद ज्यादा है। इसी तरह कॉम्प्लैन का दावा है कि उसमें 34 वाइटल न्यूट्रिएंट हैं। जबकि हकीकत यह है कि इसमें भी 29 फीसद शुगर भरा है जो बच्चों की सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। हॉर्लिक्स का दावा है कि वह बच्चों की लंबाई बढ़ाता है और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करता है। सीएसई की रिपोर्ट बताती है कि ये दावे भ्रामक हैं। हॉर्लिक्स में भी 35 फीसद शुगर पाया गया है। वहीं सफोला मसाला ओट ‘फिटनेस डाइट’ होने का दावा करता है। हकीकत यह है कि इसमें सोडियम के इस्तेमाल के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई है। बता दें कि ज्यादा सोडियम दिल के लिए खतरनाक होता है।

सेहत के नाम पर

पिछले साल से शुरू कोरोना महामारी का कहर अब पहली के बाद दूसरी और तीसरी लहर के तौर पर हमारी सेहत की परीक्षा ले रहा है। इस दौरान स्वस्थ रहने के लिए शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने को लेकर नई जागरूकता देखने को मिल रही है। किसी ने ‘हर्बल काढ़ा’ पीने की आदत डाल ली है तो किसी ने अपनी खुराक में ‘मल्टीग्रेन उत्पादों’ को शामिल कर लिया है। स्वास्थ्यवर्धक पेय और विटामिन की गोलियों की खपत तो एकदम से आसमान छू गई है। पर इन सबसे अंतिम हासिल क्या है, इसको लेकर ज्यादातर लोग बेपरवाह हैं।

इस बारे में विश्व प्रसिद्ध स्वास्थ्य संस्थान के रूप में ख्यात जॉन्स हॉपकिंस विश्वविद्यालय ने अपनी एक रिपोर्ट में दिलचस्प खुलासे किए हैं। इसके मुताबिक, अमेरिका में 65 वर्ष और उससे अधिक उम्र के 70 फीसद लोगों सहित लगभग आधी वयस्क आबादी नियमित रूप से मल्टीविटामिन या दूसरा कोई विटामिन या मिनरल टैबलेट लेती है। वे इस पर हर साल 12 अरब डॉलर से भी अधिक खर्च करते हैं। विश्वविद्यालय के आहार विशेषज्ञों का कहना है कि इस पैसे का बेहतर इस्तेमाल पोषक तत्वों से लैस आहार जैसे फल, सब्जी, साबुत अनाज और कम वसा वाले डेयरी उत्पादों पर किया जा सकता है।

शोध में खुलासा

एआइएम पत्रिका ने अपने चर्चित संपादकीय ‘बहुत हो चुका, विटामिन और मिनरल्स सप्लीमेंट पर पैसे बर्बाद करना छोड़ें’ में बताया है कि जॉन्स हॉपकिंस के शोधकर्ताओं ने तीन अध्ययनों सहित पूरक आहार के बारे में सबूतों की समीक्षा की है। उन्होंने 4,50,000 लोगों पर यह शोध किया। इस शोध के विश्लेषण में पाया गया कि मल्टीविटामिन हृदय रोग या कैंसर के जोखिम को कतई कम नहीं करते हैं। 12 साल तक 5,947 पुरुषों की मानसिक गतिविधियों और उनके द्वारा मल्टीविटामिन के उपयोग पर नजर रखने वाले एक अध्ययन में पाया गया कि मल्टीविटामिन ने स्मरण शक्तिको कमजोर करने के जोखिम को कम नहीं किया। शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि मल्टीविटामिन हृदय रोग, कैंसर, मानसिक बीमारी (जैसे स्मरण शक्तिकमजोर पड़ना) या असामयिक मौत के जोखिम को कम नहीं करते हैं। पहले के अध्ययनों से भी यह पता चलता है कि विटामिन ई और बीटा-कैरोटीन की खुराक हानिकारक हो सकती है, खासतौर पर अधिक सेवन करने पर। कई सभ्य और विकसित समाजों ने ऐसी स्थितियों में हितों के टकराव का पर्दाफाश करने के लिए बहुत सशक्त प्रणालियां बनाई हैं। दुर्भाग्य से भारत में अभी तक ऐसी कोई प्रभावी प्रणाली विकसित नहीं हो पाई है।

मुसीबत और भी

एक आम समझ है कि कुछ और खाने से बेहतर है कि मौसमी साग-सब्जी और फल खाए जाएं। डॉक्टर भी अपने मरीजों को यही सुझाव देते हैं। पर सेहत से खिलवाड़ की बिसात यहां तक पहुंच गई है कि इनका सेवन भी आप आंख मूंदकर नहीं कर सकते हैं। बाजार में बिकने वाला चाइनीज फूजी सेब इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यह सेब देसी सेब से महंगा है। फिर भी इसकी बिक्री ज्यादा होती है। एक तो इसकी पैकिंग इतनी आकर्षक होती है कि लोग न चाहकर भी इसके जाल में फंस जाते हैं। जबकि इसकी बिक्री प्रतिबंधित है। पर इसकी जानकारी न थोक या खुदरा विक्रेताओं को है और न ही ग्राहकों को। भारत सरकार ने इससे होने वाले नुकसान को देखते हुए इस पर 2017 में प्रतिबंध लगा दिया था। बताया जाता है कि इस सेब को पकाने के लिए उरबासिड या टूसेट नाम के केमिकल का इस्तेमाल जाता है, जो त्वचा पर चकत्ते पैदा कर सकता है। इसे चीन की सरकार ने भी अपने देश में बिक्री के लिए प्रतिबंधित कर रखा है।

इसके अलावा एक बड़ा संकट मिलावट का भी है। दूध, घी, शहद और खाद्य तेल आदि में मिलावट का धंधा करोड़ों रुपए का है। हर साल समय-समय पर इस बारे में सख्त सरकारी हिदायत जारी होती है फिर भी मिलावटखोरी कम नहीं हो रही है। ऐसे में एक जागरूक व्यक्ति के लिए यह काफी मुश्किल है कि वह अपने खाने-पीने के बारे में कैसे चुनाव करे, कैसे फैसला ले। जो एक बात समझ में आती है वह यह कि दावों से ज्यादा लोगों को अपने अनुभवों पर यकीन करना चाहिए। यह भी कि सेहत की सुरक्षा का मसला बाजार के भरोसे नहीं सुलझाया जा सकता है। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को एक साथ जारूक होना पड़ेगा।



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