दीपावली विशेष: दिवाली का वो आदान प्रदान महोत्सव – – और परस्पर पारिवारिक मिठास, अब कहां ?
● लालबहादुर श्रीवास्तव, वरिष्ठ साहित्यकार
● प्रस्तुति डॉ घनश्याम बटवाल, मंदसौर
दिवाली सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है । यह केवल भारत ही नहीं विदेशों में बसे सभी भारतीय भी अन्य देशों में भी उत्साह और उमंग से उत्सव मनाते हैं । इसके त्यौहारी प्रभाव से विदेशी नागरिक और सरकारी प्रतिनिधि भी अछूते नहीं रहते हैं ।
हमारे यहां पंच दिवसीय दिवाली पर्व की खुशियां मात्र पटाखों में ही नही मिठाई में भी छिपी होती है। साफ सफाई के साथ साथ दिवाली के आने वाले घटते दिनों तक रंगरोगन चलता रहता है। रांगोली घर आंगन सजती है और हर घर में स्वादिष्ट मिठाईयां बनने का दौर शुरू हो जाता है । आज तो अधिकांश घरों मे बाजार से मिठाईयां खरीद कर ही लाई जाती है। हमारी कामकाजी गृहणियों को इतना वक्त कहां ,नौकरी और कामकाज से थकी मांदी आकर मिठाईयां बनाने के पचड़े मे कौन पड़े ?
बात मिठाई बनाने के साथ साथ दीवाली के दूसरे दिनों से आस पास कॉलोनी मुहल्ले में मिठाई आदान प्रदान महोत्सव की भी है। यह शहरी क्षेत्रों में ही नहीं ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रचलित रहा है ।
कोई लगभग पांच दशक पहले की बात है जब हमारे पड़ौसी आज की तरह अजनबी न होकर पारिवारिक हितैषी हुआ करते थे। दुख सुख में दिन रात काम आते थे । आज पड़ौसी – – पड़ौसी से बेखबर इस लिए है क्योंकि हम कलयुग की और बढ़ रहे है ओर स्वयं में एकाकी हो जी रहे हैं ? तब कि बात है,दिवाली पर बनने वाली मिठाईयों की भीनी भीनी सुगंध आने पर मालूम हो जाता था किसके यहां कौन कौन सी मिठाई बन रही है ?
अक्सर मिठाईयों में अनारसे,बेसन चक्की खोपरापाक,बालूशाही , गुझिया मैसूरपाक,नमकीन मीठी पपड़ी, घेवर , गुलाब जामुन केशर बाटी, मक्खन बड़ा बेसन बुंदी , लड्डू सेव मिक्चर शकर पारे बेसन, मेदे और सूजी के हुआ करते थे । ऐसा माना जाता था जिन घरों मे गृहणियों के हाथ सधे हो और जिनके हाथों कांच की क्राकरी न टूटती हो वे गृहणियां गुलाब जामुन अच्छे खासे बना लेती थी ।
मां के साथ पिताजी ही नही घर के हर सदस्य पक्के हलवाई की तरह इन व्यंजनों को बनाने में दो तीन दिन पहले से ही जुट जाते थे ओर इतनी भरपूर मात्रा में व्यंजन बनाते थे कि घर के सदस्यों के साथ साथ दीपावली मिलन समारोह मे आने जाने वाले मेहमानों के साथ साथ पड़ौसियों को भी घर घर जाकर आदान प्रदान महोत्सव की परम्परा का निरवहन करते मिठाईयां बांट आए। मां बड़े बडे कनस्तरों मे इन्हें भरकर रखती थी ।कभी -कभी तो घर के सभी लोग मिलकर दीवाली के पहले ही इन मिठाईयों का सफाया कर देते थे ।फिर से साहस जुटाकर मिठाईयां बनानी होती थी।
उस जमाने मे न काजूकतली थी न छप्पन भोग न ब़गाली मिठाईयां ओर न बादाम बर्फी परम्परागत मिठाई ही घर- घर बनती ,बस परिवारों और पड़ोसियों हौड़ उनमे यहीं मचती किसके घर कौन सी मिठाई मुंह को पानी लाने वाली लजीज बनी है।
हम जैसे घर के छोटे छोटे बच्चों की टोली खुफिया एजेंट की तरह घर -घर जाकर पड़ौसियों मुहल्ले की गलियों में घरों में दीवाली की मिठाईयां सूचनाएं अपने घर में देते हुए खुश होते थे।
जब बारी आती तो सुंदर थाली में सजाकर मां या दीदी के हाथ का बना क्रोशिए का रूमाल ढ़क कर आदान प्रदान महोत्सव अन्तर गत बांटने जाते थे। अनुशासित तरीके से थालियां ले जाते ,अगर हाथ हिल गये तो सब गुड गोबर हो जाया करता था। कभी कभी तो पड़ौसियों के घरों से नदारद हो जाने के कारण दो दो चक्कर लगा कर घनचक्कर बन जाया करते थे तब जाकर मिठाईयां थाली की बंट पाती थी। । अक्सर सभी को इंतजार रहता था कि पहले दूसरों के यहां से मिठाईयां सजधज कर आए, फिर हम बांटे ,जिससे मिठाईयों का अनुपात बराबर रह सके।ये भी देखा जाता था जिस घर से जितनी मिठाईयां आई है उतनी रखकर हम बच्चों के हाथों भिजवा दी जाए ।ऐसा भी होता था जब किसी के घर से अच्छी मिठाई आती मां कामकाज में व्यस्त होती हम बच्चे थाली में से अच्छी मिठाई मां को बिन बताएं नजरों से गप गपा गप कर जाते थे।
हां,मिठाईयां बाटने में भी स्टैंडर्ड मैंटेन करना होता था यह बड़ा ही जोखिम भरा काम होता था । सुबह से शाम मां दीदी भाभी को थालियां जमाते जमाते हो जाया करती थी । तीस पैतीस घर मिठाई बांटना मामूली सी बात थी।उस जमाने में घर मे दो तीन भाई बहन तो होते ही थे जो आज्ञाकारी होकर मां दीदी का हाथ बटाते थे वे मां के द्वारा बताई गली नापकर मिठाईयां बांट आते थे ।
आज परम्परा जीवित होती तो हमारे परिवारों के कई इकलौते लाड्ले बच्चे मिठाईयां घर की खूंटी पर ही बांधकर इतिश्री कर लेते या व्हाटसअप पर ही भेज देते। आज समय बदल गया है।समयाभाव हो गया है।
और हां उस समय मां के साथ बच्चे भईया बहन इतने जोर -जोर से ठहाके लगाते थे अगर पिताजी घर पर दफ्तर से आ गये होते वे भी इन ठहाकों मे शामिल हो जाया करते थे, जब घर की भेजी मिठाई किसी पडौसी के यहां से अपने ही घर बिना कोई रन बनाए बेग टू द पवेलियन लौट आती थी ।
इसमें पड़ौसी का दोष नही, सूझबूझ का दोष रहता था। शरमा जी के यहां से या वरमाजी के यहां से मिठाई आई थी सबूत के तौर पर इसका कोई लेबल नही लगाया जाता था।चूक हुई और ये सब पल भर में खेला हो गया ,भेजी मिठाई वापस देखकर ऐसा लगता था जैसे दूसरे घर की मुफ्त यात्रा कर सकुशल घर लौट आई हो।
ओर हां यह मिठाई आदान प्रदान सभी वर्ग और समाज में बिना भेदभाव हुआ करता था।
पांच दिनों तक चलने वाले हमारे सबसे बड़े त्योहार पर धन त्रयोदशी धनवंतरी जयंती , रूप चौदस, ज्योति पर्व दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज
पूरा परिवार सारा समाज सभी वर्ग और धर्म के अनुरागी क्या सारा देश दीपावली त्यौहार पर मन से खुशियों में शामिल होता आया है ।
आज दिवाली आते ही मां की स्मृतियों के साथ साथ वे दिन फ्लेशबैक की तरह आंखो से उतर कर हंसी ठहाकों की तरह होठों पर आ ही जाते है जब आदान प्रदान महोत्सव में हमारे पड़ौसियों मे स्वार्थभाव न होकर परस्पर स्नेह सद्भाव एक दूजे के साथ रहता था आज शनै:शनै: लुप्त होता जा रहा है ? दिवाली दिल से नहीं रस्में पूरी करने वाली हो गई है, संबंधों की मिठास कम हो रही परम्परा लुप्त होती जा रही पर प्रदर्शन के साथ
चकाचौंध बढ़ गई है।
दीपावली पर्व पर अग्रिम शुभकामनाएं!